Wednesday, May 12, 2010

surbhit ganga ke that par....





बहता जाता दीप धार की दिशा पकड़ कर
कल कल बहती अविरल निर्झर जल धारा मे

उबड़ खाबड़ लहरों की पगडण्डी पर
नहीं खोजता मार्ग चला बस .... बहता जाता जल धारा में/

नहीं चाह मंजिल की उसको,
न परवाह जिंदगानी की,
वर्तमान का क्षण प्रदीप्त कर,
खो जाने को जल धारा में



है ऐसा ही मानव जीवन ,
कितने क्षण की थाती है
दिन और रात की लहरें प्रतिपल बस आती और जाती हैं
कौन जानता किसी मोड़ पर, किस रोड़े की ठोकर खा कर
किसी भंवर के आकर्षण में, खो जाना है जल धारा में



फिर दीप रहे न पुष्प रहे, यादों में होगा प्रदीप्त वो,
सुरभित और सुवासित होकर, मेरे मन् की जल धारा में

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